गुरुवार, 7 जनवरी 2016

झारखंड का मूल निवासी कौन?

झारखंड में ऐसा लगता है कि स्थानीयता के मुद्दे पर
आंदोलन एक बार फिर ज़ोर पकड़ने लगा है.
आदिवासी मूलवासी जनाधिकार मंच ने
बीते दिनों इस मुद्दे पर एक दिन का झारखंड बंद
भी रखा था. इसमें बड़ी संख्या में लोग
झंडे-बैनर के साथ सड़कों पर उतरे. इस बंद को कई
राजनीतिक दलों और संगठनों ने भी
समर्थन दिया.
आदिवासी मूलवासी जनाधिकार मंच के मुख्य
संयोजक राजू महतो कहते हैं, "हमारा ज़ोर इस बात पर है कि
जिनके पास अपने या पूर्वजों के नाम ज़मीन आदि का
ख़तियान है, उन्हें ही स्थानीय माना जाए
और उन्हें ही सरकारी नौकरियां
दी जाएं."
उन्होंने यह भी कहा कि झारखंड की नौ
क्षेत्रीय भाषाओं को समान रूप से लागू करते हुए इसे
प्रतियोगिता परीक्षाओं और बीएड के
पाठ्यक्रम में लागू किया जाए.
आदिवासी जन परिषद के अध्यक्ष
प्रेमशाही मुंडा कहते हैं, "सरकार ने वादा किया था कि
साल 2015 में 15 नवंबर को स्थानीयता से
जुड़ी नीति घोषित की
जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जब तक
स्थानीयता तय नहीं होती,
नौकरी देने पर रोक रखी जाएं".
यहां ज़मीन का अंतिम सर्वेक्षण, सर्वे रिकार्डस
ऑफ राइट्स वर्ष 1932 में हुआ था. इन संगठनों की
मांग है कि उस सर्वे के आधार पर जिनके पास ज़मीन
है, उन्हें स्थानीय माना जाए.
उसके बाद बड़ी संख्या में लोग यहां आकर बसे हैं जो
नौकरी करते हैं या व्यापार करते हैं और
यहीं के हो गए हैं. जमशेदपुर, रांची.
धनबाद, बोकारो, रामगढ़ जैसे औद्योगिक शहरों में ऐसे लोग
बड़ी संख्या में रहते हैं.
झारखंड में लंबे समय से मांग भी उठती
रही है कि छत्तीसगढ़ की
तर्ज पर झारखंड के अलग राज्य बनने की
तारीख़ से स्थानीयता की
परिभाषा तय हो. राजनीतिक दलों के अंदर
भी यह आवाज़ उठती रही
है कि जो झारखंड में रहता है उसे झारखंडी माना
जाए.
वर्ष 2002 में बाबूलाल मरांडी की सरकार
के कार्यकाल के दौरान कार्मिक प्रशासनिक सुधार और राजभाषा विभाग
ने स्थानीयता की परिभाषा तय
की थी.
उसके मुताबिक़, किसी ज़िले के वे लोग
स्थानीय माने जाएंगे जिनका स्वयं के या पूर्वजों के नाम
ज़मीन, वासडीह आदि पिछले सर्वे ऑफ़
रिकॉर्डस में दर्ज़ हो.
इसके जारी होने के बाद राज्य में हिंसा की
कई घटनाएं हुई थीं और सरकार के फ़ैसले पर कई
तरह के सवाल भी उठाए गए थे.
इस मामले को लेकर हाइकोर्ट में जनहित याचिका भी
दाख़िल की गई थी.पांच सदस्यों
की खंडपीठ ने सरकार के फ़ैसले को
खारिज करते हुए कहा था कि वह स्थानीय व्यक्ति
की परिभाषा फिर से तय करे.
15 वर्षों में इस नीति के तय नहीं होने
पर सियासत भी होती रही
है. इसके लिए कम से कम छह बार सर्वदलीय
बैठकें हुई हैं. नीति तय करने के लिए
सरकारी स्तर पर चार बार उच्च स्तरीय
समिति भी बनी है, लेकिन कोई
नतीजा नहीं निकला.
अब इसी मुद्दे पर पूर्व मुख्यमंत्री और
वर्तमान में विपक्षी दल के नेता हेमंत सोरेन ने कहा
है कि खतियान के आधार पर स्थानीय नीति
तय होनी चाहिए. जबकि हेमंत सोरेन भी
मुख्यमंत्री रहते हुए इस मुद्दे का कोई हल
नहीं निकाल सके थे.
वर्ष 2014 में सत्ता संभालने के बाद पिछले साल अप्रैल में
मुख्यमंत्री रघुवर दास ने इस मुद्दे पर
सर्वदलीय बैठक भी बुलाई
थी और सभी दलों से लिखित तौर पर सुझाव
मांगे थे.
भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता प्रेम मित्तल कहते हैं,
"हमारी सरकार इस मामले में गंभीर है.
हेमंत सोरेन को इस मुद्दे पर सरकार पर किसी तरह
का आरोप लगाने का अधिकार नहीं है, भाजपा और
सरकार, नियोजन नीति की भी
पक्षधर है".
वहीं छात्र तथा मजदूर नेता उदयशंकर ओझा कहते
हैं "इस मुद्दे पर अब तक केवल राजनीति
होती रही है. गेंद इस पाले से उस पाले
में, लेकिन गोल नहीं होता. अब तो 15 साल हो गए,
यहां कोई स्थानीय नीति की
जरूरत नहीं है. कट ऑफ़ डेट को लेकर सवाल होना लाज़मी है.
अब सरकार को नियोजन नीति तय करनी चाहिए ताकि नौकरियों में प्राथमिकता तय हो सके".

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