दलित राजनीति के तीन ‘राम’ हैं. एक हैं रामराज (उदित राज), दूसरे रामदास अठावले और तीसरे रामविलास पासवान. ये तीनों गले में भगवा साफा लपेटकर हकीकत तो यही है कि ये तीनों ‘राम’, ‘रामराज’ लाने के लिए दिन-रात एक किये हुए हैं. रामराज ने भारत को बौद्ध बनाने के अभियान से अपनी राजनीति शुरू की थी. मगर कुशीनगर और श्रावस्ती होते हुए उन्होंने अयोध्या आकर अपना बसेरा बना लिए. जिस प्रकार मुसलमानों के खिलाफ जब बोलना होता है तो भाजपा नकवी-हुसैन की जोड़ी को आगे कर देती है. अब जब दलितों के खिलाफ बोलना होता है तो रामराज हाजिर हो जाते हैं. इसका उदाहरण उस समय मिला, जब रामदेव ने दलितों के घर राहुल द्वारा हनीमून मनाने वाला बयान दिया, जिसके बाद देशभर के दलितों ने विरोध करना शुरू कर दिया. इसलिए बड़ी बेशर्मी से रामराज रामदेव के समर्थन में आ गए.
उधर रामदास अठावले, जो अपने को डॉ. अंबेडकर का उत्तराधिकारी से जरा कम नहीं समझते, वे शिवसेना के झंडे तले मोदी के प्रचार में जुटे हुए हैं. उनकी असली समस्या यह थी कि वे मनमोहन सरकार में मंत्री बनना चाहते थे लेकिन विफल रहे. इसलिए उन्होंने भगवा परिधान ओढ़ने में ही अपनी भलाई समझी. तीसरे नेता रामविलास पासवान पहले भी वाजपेयी के मंत्रीमंडल में रह चुके हैं. हकीकत यह है कि 1989 से अब तक वीपी सिंह, देवगौड़ा, गुजराल, वाजपेयी और मनमोहन सिंह, सबके मंत्रीमंडल में रामविलास पासवान केन्द्रीय मंत्री रह चुके हैं. गोधरा दंगे के बाद उन्होंने राजग छोड़ा था. लेकिन मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में मंत्री न बन पाने के कारण वे फिर मोदी की हवा में उड़ने लगे. अब हर मंच से मोदी का प्रचार कर रहे हैं.
इस समय सारे दलित नेता दलित वोटों की भगवा मार्केटिंग कर रहे हैं. ये नेता जान-बूझकर दलितों को सांप्रदायिकता की आग में झोंक रहे हैं. इतना ही नहीं, वे वर्ण-व्यवस्थावादियों के हाथ भी मजबूत कर रहे हैं. ऐसी परिस्थिति में यह जिम्मेदारी दलित समाज की है कि वे सारी दलित पार्टियों को भंग करने का अभियान चलायें और उसके बदले जाति व्यवस्था विरोधी आंदोलनों की शुरुआत करें. अन्यथा इन नेताओं के चलते दलित हमेशा के लिए जातिवाद के शिकार बन जाएंगे.