रविवार, 28 फ़रवरी 2016

" आंतकवादी " उतना नुकसान शायद मुंबई मे न कर पाये !

जितना अपने देश भक्तों ने BJP  और मोदी की छत्र-छाया में हरियाणा में कर डाला ! !

शाबास भारतीयों और देश भक्तों , हमे पाकिस्तान या चीन क्या ज़रूरत !
हम ही काफी है अपनी खुद की वाट लगाने के लीये !

जय हो " मोदी राज"  और " खट्टर राज "  की !
" मेरा भारत महान "

हर बातों मे कोंग्रेस को दोषी क्यों ? ये पोस्ट मे कहने का मतलब ये है की अगर देश के आंतरिक आंतकवादीयों को नियंत्रण कर नही सकते है देश का P.M  मोदी और BJP की खट्टर सरकार तो पकिस्तान सीमा पर पाकिस्तानि आंतकवादी को खाक नियंत्रण कर पायेगा 56"  का सीना कहने वाले ??

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

पत्रकारिता सत्ता के खिलाफ ही होती है

पहला हिंदी पत्रकार जिसने 100 शीर्ष भारतीयों में जगह बनाई है।
कल रवीश कुमार ने भारत के न्यूज एंकर सर्वे में जीत दर्ज की है।
उनको 4178, अर्नब को 1700, रोहित सरदाना को 1540, सुधीर चौधरी को 1300 और दीपक चौरसिया को 81 वोट मिले।
इसके पहले रवीश कई बार बेस्ट जर्जर्नलिस्ट ऑफ द ईयर का पुरस्कार जीत चुके हैं,एशियाई पत्रकारों में बेस्ट बन चुके हैं। लेखक के तौर पर भी उन्हें एवार्ड मिल चुका है। कई इंटरनैशनल मंचों पर सम्मानित हो चुके हैं। एक घंटे के शो के लिए 18 घंटे की मेहनत और रिसर्च करते हैं। उनका किताबों का बजट ही 10-12 हजार रुपये महीने का होता है। जितना कांग्रेस की आलोचना करते थे, उतना ही भाजपा की भी। हो सकता है कि सरकार के किसी समर्थक को बुरा लगता है लेकिन पत्रकारिता सत्ता के खिलाफ ही होती है, जिस दिन से पत्रकार सरकार की आलोचना बंद कर देगा उस दिन से लोकतंत्र खतरे में, चाहे जिसकी सरकार हो। सरकार के पास अपने कार्य को एडवर्टाइज करने के लिए तो हजारों करोड रुपये हैं। अब सरकार आपकी है तो आलोचना भी आपकी ही होगी। यही आदमी कांग्रेस के घोटालों पर लगातार 15-15 बहस करवाता था, आज भी भाजपा के वो नेता उसे बेस्ट ही कहते हैं जो लोकतंत्र समझते हैं।
अन्यथा इस देश में सबसे तेज और पहले का दावा करने वाले कई चैनल और पत्रकार कोर्ट से सजा पाकर बंद हो चुके हैं। जब पूरा देश भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन के दौरान सडको पर था तो दीपक चौरसिया जैसे लोग अन्ना हजारे के खिलाफ रिपोर्ट करके कांग्रेस के साथ खडे थे। सत्ता के साथ कई चैनलों ने पाले बदले हैं। जिनके हर चुनाव सर्वे बिलकुल गलत होते हैं।

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

देशद्रोह के आरोपी छात्रो का परिचय और भविष्य का संकट।

जेएनयू के जिन छात्रों से देश को खतरा है, हमारे लिए उनका परिचय जानना जरूरी है।

1. कन्हैया कुमार-  छात्रसंघ अध्यक्ष। पिताजी अपाहिज है तथा माँ तीन हजार रू पगार में आँगनवाडी में कार्य करती है, उनकी कमाई से ही पूरे परिवार का पेट पलता है।

2. राम नागा - छात्रसंघ महासचिव। गरीब दलित परिवार से है। भूखमरी के लिए कुख्यात कालाहांडी के निवासी हैं।

3. चिंटु कुमारी - छात्रसंघ की पूर्व महासचिव। बिहार के दलित परिवार से है। इसकी माँ चूडियाँ बेचकर घर चलाती है।

4. लेनिन कुमार - छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष। तमिलनाडु के निवासी। न पूरी तरह अंग्रेजी जानते हैं, न हिन्दी। बावजूद जेएनयू ने उन्हे अपना नेता चुना।

5. उमर खालिद - नास्तिक है। इन्होंने येल विश्वविद्यालय की फैलोशिप का प्रस्ताव इसलिए ठुकरा दिया, क्योंकि उन्हें दलित व आदिवासियों के लिए काम करना था।
               इनमें से किसी के खिलाफ अभी तक पुलिस एक भी सबूत पेश नहीं पेश कर सकी । और जो सबूत पेश किये गए वे फर्जी निकले। बावजूद इन्हें देशद्रोही करार देकर पूरे देश में बदनाम कर दिया गया। गरीब, मजदूर, किसान और दलित परिवार से आने वाले ये बच्चे देशद्रोही हो गये और जनता का लाखों करोडो पैसा लूटकर विदेशी बैंकों में जमा करने वाले सबसे बड़े देश भक्त हो गये। सरकार ने उन्हीं देशभक्त कारोबारी घरानों के एक हिस्से के 1 लाख 14 हजार करोड़ रूपये माफ कर दिये । न कोई  चूं हुई और न ही चर्चा। दरअसल बीजेपी मनुवादी कोख से पैदा हुई पार्टी है। लिहाजा इसका बुनियादी चरित्र ही दलित, आदिवासी, महिला, गरीब, मुस्लिम विरोधी है।कॉरपोरेट परस्त होने के नाते मजदूरों, किसानों और प्रगतिशील विचार रखने वाले नौजवानों से 36 का रिश्ता है। केन्द्र सरकार इनकी समस्याओं का हल करने के बजाय समस्याओं का स्रोत बन गई है।
         लोकतंत्र संस्थाओं से चलता है। लेकिन आज संस्थाओं को ही अपाहिज किया जा रहा है। फांसीवाद का जन्म ऐसे ही होता है। संकट की इस घड़ी में लोकतांत्रिक प्रगतिशील विचार रखने वाली ताकतों को एकजुटता दिखाते हुए अपने अपने मोर्चों पर मुश्तेन्दी दिखाना जरूरी हो गया है। अभी एकजुट नहीं हुए, तो फिर बहुत देर हो चुकी होगी।

भारत का इतिहास हमारे छाती पर आग का दहकता गोला है

संसद में महिषासुर पर गर्मागर्म बहस हुई, आप सबने देखा सुना. लेकिन इतिहास यह है की जितने भी असुर राक्षस माने जाने वाले शासक थे वे सभी भारत के मूलनिवासी थे जिनके बारे में ब्राह्मणी इतिहास ने हमारे बीच बिगड़ा हुआ इतिहास प्रस्तुत किया है.
असुर का अर्थ है, वह जो सूरा नही पीता है, बलवान और वीर्यवान है. राक्षस का अर्थ है, रक्षक याने protector. जितने भी हिन्दू पर्व हैं सभी मूलनिवासी राजाओं के कत्ल पर मनाये गए जश्न से सम्बंधित. होली में होलिका, दशहरा में महिषासुर, दीवाली में राजा बलि की शहादत को बध का नाम दे कर हमारा इतिहास बिगाड़ा गया है ताकि हम हम अपने गौरवशाली पूर्वजो पर गर्व न कर सकें. वास्तव में सारे हिन्दू त्यौहार हमारे पूर्वजों के विदेशी आर्य ब्राह्मणों द्वारा क़त्ल के बाद हमसे से जश्न मनाये जाने की कहानी है. त्यौहार का अर्थ ही होता है "तुम्हारी हार". याने हमारी हार. यही कारण है की बाबासाहेब कहते थे..भारत का इतिहास हमारे छाती पर आग का दहकता गोला है. सच जाने, स्वाभिमानी बनें.

सौ : shaileshhadiyal28@gmail.com
9998839902
Tharad, Gujarat

आईये हम सब मिलकर आरक्षण को ख़त्म करते हैं

आरक्षण का विरोध करने वाले कृपया 1 बार
हमारे इस पोस्ट को आवश्य पढ़ें।
इधर कुछ दिनों से facebook और whats app पर जोर
शोर से आरक्षण का विरोध किया जा रहा है।
सवर्ण जाति के लोगों का कहना है कि आरक्षण
को पूरी तरह से समाप्त कर देना चाहिए,
मैं भी सोचता हूँ की आरक्षण अब खत्म ही हो
जाये तो अच्छा है समाज में सभी लोगों को
सामान अवसर प्राप्त हो सकेगा।
तो आईये हम सब मिलकर आरक्षण को ख़त्म करते हैं........
1.-शंकराचार्य की कुर्सी पर ब्राह्मण का
आरक्षण है, कुछ सालो के लिए किसी निम्न वर्ग
के वयक्ति को नियुक्त करवाकर ब्राह्मण का
आरक्षण ख़त्म किया जाय।
2.- काशी, सोमनाथ आदि मन्दिरों में भंगी -
चमारों से एक वर्ष पूजा करवाकर वहाँ भी
आरक्षण खत्म करें.
3. - कूड़ा-सफाई का काम अभी तक भंगी ही
करते आये हैं, अब किसी पंडित ठाकुर या सवर्ण
जाती के लोगों को यह जिम्मेदारी सौपी
जाय और आरक्षण खत्म किया जाय.
4. - एक शिक्षा एक पाठ्यक्म और विद्यालय
पद्धति लागू किया जाय। गरीब हो या
अमीर, उच्च वर्ग का हो या निम्न वर्ग का सभी
के बच्चे सरकारी स्कूल में ही पढेंगे, सबों को 1
सामान शिक्षा दी जाय और नौकरी में
आरक्षण खत्म किया जाय।
5.- दलितों को 5 हजार वर्षों तक शिक्षा से
वंचित रखा गया, सवर्णों को सिर्फ 5 वर्ष तक
शिक्षा से वंचित करें और हर जगह से आरक्षण खत्म
करें।
- एक कदम हम बढाये, एक कदम आप बढाईये आरक्षण
खत्म करके समानता का लाभ उठाइये।........
..........................................................

जय भीम

बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

अब ये आरएसएस का प्लान B है.

जरूर गौर करें हर दो तीन महीने पर कहीं न कहीं से उठने वाली आरक्षण की मांग का मक़सद ही यही है कि देश में आरक्षण व्यवस्था के विरुद्ध एक फैब्रिकेटेड माहौल तैयार किया जाये,
एक पब्लिक ओपिनियन को क्रिएट किया जाये. यह सन्देश दिया जाये कि आरक्षण व्यवस्था ही मूल समस्या है न कि समाधान.
दरअसल डेमोक्रेटाइज़ेशन के प्रोसेस से सवारों का वर्चस्व टूट रहा है और सदियों से वंचित रहे वर्गों की न्यूमेरिक स्ट्रेंथ अब रिफ्लेक्ट होना शुरू हो गयी है और समय के साथ इसको अब बढ़ना ही है.
यह एक सोची समझी साजिश है जिसके तहत सरकार स्थिति को तब तक बिगड़े रखना चाहती है
जब तक जन सामान्य को दैनिक जीवन में अव्यवस्था न हो जाये, लोग रोज़ रोज़ के तमाशे [जैसा कि साबित करने की मंशा है] से त्रस्त न हो जाएं.
हमने पाटीदार और जाट, दोनों मामलों में समानता देखी है अन्यथा ऐसी कौन सी सरकार होती है जो एक तरफ लॉ एंड आर्डर के स्टेट सब्जेक्ट होने का दम भरते नहीं थकती है
और दूसरी तरफ हालत बिगड़ने पर मूक दर्शक बन जाती है.
गुजरात और हरियाणा दोनों ही जगह बीजेपी की सत्ता है और केंद्र भी इनका है तो
अब क्या कारण है कि हालत संभल नहीं रहे?
दरअसल जानबूझ के संभाले नहीं जा रहे हैं. बिहार में आरक्षण समीक्षा का कार्ड फेल हुआ है और अब ये आरएसएस का प्लान बी है. हालाँकि संवैधानिक पेचीदगियों के चलते आरक्षण से खिलवाड़ लगभग असंभव है
लेकिन जनता के मन में अविश्वास पैदा करना तो आसान ही है. सजग रहे, सतर्क रहे

क्या भविष्यमे किसान भारतीय राष्ट्रवाद को खतरा पैदा करेंगे?

रोहित वेमुला और कन्हैय्याकुमार को न्याय मिलनाही चाहिये. लेकीन अगर किसान आत्महत्या, महंगाई, पुराना-नया काला धन जैसे महत्वपूर्ण सवालोंको दबानेके लिये भाजपाद्वारा जे एन यु कांड जानबुझके उछाला गया है तो भाजपा कि इस रणनितीका सक्षम प्रतिवाद भी जरुरी है यह बात विपक्ष ठीकसे समझ ले. विदर्भ, मराठवाडा, बुंदेलखंड, तेलंगाणा और ऐसे कई इलाकेमे किसानोंकी स्थिती बेहद गंभीर है. संसद अगर इससे बेखबर रहेगी तो अंततः नुकसान भारतीय समाज का ही होगा. सच मानो तो यह मुद्दा भी भविष्य मे राष्ट्रवाद के लिये खतरा साबित हो सकताहै. आखिर किसान कबतक आत्महत्या करेगा. उसकी दुसरी पिढी अगर हथियार उठाने पर मजबूर हो गयी तो दोष तो उन सभी सरकारोंका होगा जिन्होने धर्म-जातीके अस्मिता-अहंकारवादी नकली सवाल पैदा करके तथा उनसे उलझनेका नाटक करते हुये किसान और खेतीसे जुडे सवालोंकी अनदेखी की!!! 

सौ - सुभाष वारे

विदेशी अखबारों ने मोदी को बताया तानाशाह

दुनिया के दो प्रमुख अखबारों ने मोदी सरकार को तनाशाही प्रवृत्ति का बताते हुए तीखी आलोचना की है. अखबार में बीते दिनों नई दिल्ली के पास दिखी ‘पीट..पीट कर मार डालने को आतुर मानसिकता वाली भीड़’ के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया है.
न्यूयार्क टाइम्स ने दिया आर्थिक तरक्की का हवाला
न्यूयार्क टाइम्स (एनवाईटी) ने अपने एक ओपएड में कहा है, ‘‘भारत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार लोगों के बीच हिंसक झड़प की वेदना झेल रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और हिंदू अधिकार पर इसके राजनीतिक सहयोगी इसे खामोश करने के लिए आतुर हैं.’’ इसने कहा है कि टकराव ने मोदी के शासन के बारे में गंभीर चिंताएं उठाई हैं. यह आर्थिक सुधारों पर संसद में किसी प्रगति की राह में और भी रोड़े अटका सकती है.
कन्हैया की गिरफ्तारी की चर्चा
अखबार ने एक अलग आलेख में देशद्रोह के आरोप में जेएनयू के छात्र नेता कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के बाद दिल्ली में हुई घटनाओं का जिक्र किया है. साथ ही यह कहा है कि संदेश साफ है...उग्र राष्ट्रवाद के नाम पर हिंसा स्वीकार्य है. ‘‘यहां तक कि अदालतें भी सुरक्षित स्थान नहीं हैं. राज्य या बीजेपी को चुनौती खुद को जोखिम में डाल कर मोल लें.’’
मार्टिना नवरातिलोवा ने किया रीट्वीट
इस आलेख को टेनिस खिलाड़ी मार्टिना नवरातिलोवा ने रीट्वीट करते हुए अपनी टिप्पणी में कहा है, ‘‘भारत में देशद्रोह के लिए क्या चीजें हैं...उग्र राष्ट्रवाद आसानी से हिंसा, धौंस जमाने में तब्दील हो रहा है.’’
ल मोंड में तिरंगा और भगवा ध्वज की चर्चा
फ्रांस के प्रमुख दैनिक समाचार पत्र ‘ल मोंड’ ने एक संपादकीय में कहा है कि मोदी के सत्ता में आने के बाद से भारतीय लोकतंत्र के आकाश में बादल छाये हुए हैं. इसने कहा है कि देशद्रोह के आरोप में एक छात्र नेता और एक पूर्व प्रोफेसर की गिरफ्तारी आलोचना को चुप करने के लिए आतुर हिंदू राष्ट्रवादी सरकार की ‘तानाशाह प्रवृत्ति’ का ताजा उदाहरण है. संपादकीय में कहा गया है कि यह देखना विरोधाभासी है कि हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय ध्वज का बचाव कर रहे हैं. उन्होंने अपने भगवा झंडे को इसपर वरीयता देते हुए लंबे समय तक दूरी बनाए रखी.
अखबारों ने पीएम मोदी को दिया सलाह
न्यूयार्क टाइम्स ने कहा है कि ‘पीट..पीट कर मार डालने को आतुर मानसिकता रखने वाली भीड़’ की जिम्मेदारी मूल रूप से मोदी सरकार पर ही है. भारतीय नागरिकों के पास अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रयोग के लिए सरकारी धमकियों के प्रति नाराजगी जताने का अधिकार है. अखबार ने मोदी से अपने मंत्रियों और पार्टी को काबू करने और मौजूदा संकट को खत्म करने का सुझाव दिया है.
More: Click Here

ऐसा करने वालों की देशभक्ति संदिग्ध है..

संघी विचार परिवार वालों से तीन सवाल.
1. आप आंबेडकर चौक, लातूर में जबरन भगवा क्यों फहराना चाहते थे. वहां तो राष्ट्रीय झंडे के अलावा कोई झंडा नहीं होता. बाबा साहेब का भगवा से क्या लेना-देना?
2. कानून के तहत, बुजुर्ग हेड कॉन्स्टेबल ने जब आपको यह गैरकानूनी काम करने से रोका, तो उनको पीटा क्यों?
3. भगवा क्यों, राष्ट्रीय ध्वज क्यों नहीं. आपने जबरन इस बुजुर्ग के हाथ में भगवा पकड़ा कर शहर में घुमाया. राष्ट्रीय ध्वज होता, तो वे खुद शान से जिंदाबाद कहकर शहर में घूमते.

ऐसा करने वालों की देशभक्ति संदिग्ध है.

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

'आज देश की राजनीति देख रोना आता है'

'आज देश की राजनीति देख रोना आता है'. : रशीद मसूद
हिंदुस्तान की राजनीति जब आज़ाद
भारत में क़दम रखती है तब से लेकर अब
तक के सफ़र में बहुत बदलाव हुए हैं.
आज़ादी के बाद नेहरू के नेतृत्व में देश
आगे बढ़ना शुरू करता है और चीन से युद्ध
तक आता है. इस दौर में सबसे अच्छी
बात यह थी कि अधिकतर लोग ऐसे थे
जो देश की आज़ादी के लिए लड़े थे.
अलग-अलग विचारधाराओं के लोग थे.
लोहिया, जयप्रकाश नारायण जैसे
लोग अलग दिशा में चल निकले थे.
कांग्रेस में भी वैचारिक भिन्नता थी, महावीर
त्यागी और नेहरू के विचार अलग थे पर सार्वजनिक रूप से या व्यक्ति विशेष पर आरोप-प्रत्यारोप की परंपरा नहीं थी.
हालांकि बँटवारे का दर्द लोगों के दिलों में था और इसे जनसंघ ने भुनाने की कोशिश की पर आज़ादी का श्रेय कांग्रेस को मिला था और नेहरू इसके नेता बनकर उभरे थे इसलिए देश का लोकतांत्रिक स्वरूप कमज़ोर
होने के बजाय मज़बूत होता गया.
विरोधों, मतभेदों और वैचारिक भिन्नता के बावजूद सभी एक बात पर सहमत थे कि इस देश को आगे बढ़ाना है.
इसी बीच केरल में कम्युनिस्ट पार्टी ने सरकार बना ली. यानी आज़ादी के 10 साल के अंदर ही केंद्र और
अन्य राज्यों में कांग्रेस की सरकार होते हुए भी आम
लोगों ने लोकतंत्र की ताकत का एक उदाहरण पेश कर दिया. इससे लगा कि हमारे देश का लोकतांत्रिक स्वरूप मज़बूत होता जा रहा है.
राजनीतिक हमले होते थे पर नीतियों को लेकर,
विचारधाराओं को लेकर. कृष्ण मेनन जी के ख़िलाफ़ नीतियों के विरोध में हुए आक्षेपों से सार्वजनिक रूप
से राजनीतिक हमलों की शुरुआत हुई पर निजी
आक्षेप अभी भी नहीं थे.
फिर लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद इंदिरा
गांधी को लेकर कांग्रेस दो फाड़ हुई और वहीं से
निजी आक्षेपों का दौर भारतीय राजनीति में शुरू
हुआ पर यहाँ भी एक मर्यादा बाक़ी थी.
इंदिरा और उनके बाद
इंदिरा गांधी ने भारतीय राजनीति को फिर से दो
हिस्सों में बाँट दिया और अब लड़ाई अमीरों और
ग़रीबों के बीच की बन गई. आगे चलकर उनके मतभेद कामराज जी से भी बढ़े और उन्होंने अपने को अकेला
पाते हुए संजय गांधी को राजनीति में उतारा. इसी
दौरान देश में 25 जून, 1975 को आपातकाल लगा.
भारतीय राजनीति का यह सबसे बुरा दौर था.
हालांकि आपातकाल में शुरुआत के कुछ
महीने बहुत अच्छे काम हुए. क़ानून
व्यवस्था की चरमराई हालत सुधरी पर
यह तबतक था जबतक संजय गांधी को
बागडोर नहीं सौंप दी गई. संजय
गांधी को लाना और उनका
निरंकुशता के साथ काम करना और इस
तरह संविधान की मर्यादा और
संवैधानिक व्यवस्था को पीछे कर देना
ही भारतीय राजनीति में एक ऐसी
परंपरा को पैदा कर गया जो हम आज
तक झेल रहे हैं.
हमने देश की आज़ादी की लड़ाई को तो नहीं देखा
पर इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ देश में जिस तरह से
आंदोलन खड़ा हुआ, उसे देखकर लगा कि शायद
आज़ादी के लिए यही जज़्बा देश के नौजवानों में
रहा होगा.
इसके बाद सत्ता बदलीं पर एक ग़लत परंपरा की शुरुआत
देश की राजनीति में हो चुकी थी जो बाद में कई
लोगों का चरित्र बनी.
वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हुई जिसके बाद
सुनियोजित रूप से सिखों के ख़िलाफ़ दंगे हुए. दंगों में
सिखों को बचाने की कोशिश करने वाले
कांग्रेसियों की नज़र में गद्दार थे. यह राजनीति में
वफ़ादारी की एक नई परिभाषा थी.
इसके बाद राजीव आए, वो संजय से अलग थे. शांत थे
और शरीफ़ थे. इसके बाद 1989 में राजनीति ने फिर पलटी खाई और अब पहली बार ऐसा हुआ जब किसी
मंत्री ने प्रधानमंत्री पर भ्रष्टाचार का आरोप
लगाकर अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया.
बोफ़ोर्स तोप सौदे को लेकर राजीव गांधी पर
निजी रूप से आरोप लगने शुरू हुए और भारतीय
राजनीति में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई और
खुलकर निजी स्तर पर आरोप लगाने की शुरुआत यहीं से हुई.

अपराधीकरण

इसी दौरान बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति
में एक बड़ा बदलाव हुआ. राजनीति से जुड़े कुछ लोगों
को लगा कि चुनाव जिताने-हराने में बाहुबलियों
की महत भूमिका हो सकती है और इसलिए इनका
सहयोग लिया जाए. यहाँ से राजनीति के
अपराधीकरण की शुरुआत हो गई जो बाद में दूसरे
राज्यों में भी शुरू हो गया.
हाँ मगर कुछ ही दिनों में बाहुबलियों
को लगा कि अगर हम इनको बना
सकते हैं तो ख़ुद क्यों नहीं बन सकते हैं.
यहाँ से इस देश की बदकिस्मती की
एक और दास्तां शुरू होती है जिसका
रोना हम आज तक रो रहे हैं.
गुंडे राजनीति में आए और बड़े पदों पर
पहुँचे और जो उनसे अपेक्षित था, आज
वही देश की पूरी राजनीति में हो
रहा है. आज कोई मूल्य नहीं हैं. कुछ
गिनती के लोग अच्छे भी हैं पर हद यह
हो गई है कि आज जब मैं गांधी टोपी पहनकर
निकलता हूँ तो बच्चे कहते हैं कि देखो साला बेईमान नेता जा रहा है.
और विडंबना यह है कि यह केवल राजनीति का हाल
नहीं है, जब आम आदमी ने देखा कि गुंडे सत्ता
हासिल कर रहे हैं तो उसकी मानसिकता भी ताक़त
हासिल करने की हो गई और आज पूरा समाज उसी
तरह का व्यवहार करता नज़र आ रहा है.
समाज का हर वर्ग भ्रष्ट हो चुका है और राजनीति
को देश के इस चरित्र का श्रेय जाता है. जो साफ़
छवि के हैं उन्हें ज़बरदस्ती फंसाया जा रहा है. अपनी
60 बरस की ज़िंदगी और 40 बरस की राजनीति के बाद देश की यह स्थिति देखकर मुझे रोना आता है.

(उत्तर प्रदेश के सहारनपुर संसदीय क्षेत्र से
समाजवादी पार्टी के सांसद रशीद तीसरे मोर्चे की ओर से उपराष्ट्रपति पद के
प्रत्याशी थे. यह लेख रशीद मसूद की बीबीसी
संवाददाता पाणिनी आनंद से हुई बातचीत पर
आधारित है.)

संसद या अखाडा

हमारे देश की राजनीती एक अखाडा बन रह गयी है।
जहाँ हमारे नेतागण एक पहलवान की तरह अपने
राजनितिक दल का समर्थन करते हुए अखाड़े में सदा
एक दूसरे से लड़ते ही रहते है। हमारी संसद की जब कोई
महत्वपूर्ण बैठक चल रही हो या किसी मुद्दे पर बहस
हो रही हो तो सोचकर बड़ा अफ़सोस होता है कि
वहां का नज़ारा घर के बच्चों के लड़ने जैसे कोलाहल
से भी ज्यादा ख़राब प्रतीत होता है। उसमे तो कई
नेता इतने शोर शराबे के बीच में भी अपनी घर की
नींद वहां ऐसे पूरी कर लेते है जैसे उन्हें घर में कई दिनों
से सोने को नहीं मिला हो। संसद में जो कुछ भी
होता है वह तो गाँव स्तर की बैठक में भी नहीं
होता है। देखा जाये तो हमारे देश में योग्य नेताओं
की कमी सी महसूस होती है। कहने को तो भारत
एक प्रजातांत्रिक देश कहलाता है किन्तु अफ़सोस
प्रजा के लिए और वो भी तब के मसलन किसान,
मजदूर आदि के लिए ज्यादा बेहतर सुविधाए उपलब्ध
नहीं हो पा रही है। आज भी अनेक गांवों में पक्की
सड़के और बिजली नहीं है। लाखों लोग भीख मांगने
को मजबूर है। कई परिवार खुले आसमान के निचे सोने
को मजबूर है। अंत में बस इतना ही कहना चाहूँगा कि
इतना सब होने पर
भी हमारी सरकारे सोयी हुई है।

लोकतंत्र दिन को "काला दिन" मनाने वालो पर अब तक देशद्रोह की कारवाई नहीं हुई है..

देश द्रोह की सुप्रीम कोर्ट ने व्याख्या की है
" देश के विरोध में कृती करना "
भारत देश में जब से  आक्रमणकारी विदेशी आर्यब्राम्हण आए हैं, तब से लेकर आजतक यह ब्राम्हण देश विरोधी कृती करते आ रहे हैं, और आज भी करते हैं ।
विदेशी आर्यब्राम्हण भारत देश में आने के पहले यहाँ एकसंघ समाज था ।
विदेशी आर्यब्राम्हणो ने एकसंघ भारतीय समाज को जाती-जाती में बांट दिया ।
जाती के आधार पर भेदभाव किया गया ।
भारतीय समाज को मानवी मूल्ये,अधिकार  नकारे गए । यह सब कृतीयाॅ अमानवीय,    समाज द्रोही, राष्ट्र द्रोही, देश विरोधी कृती है । जो  आज भी होती है । देश में हर दिन ऐसी कई घटनाएं घटती है । परंतु आज तक किसी समाज घातकी,देश घातकी, विदेशी आर्यब्राम्हणो पर  देश द्रोह का गुनाह नहीं लगाया गया ।"समाज को तोडना मतलब देश को तोडना है"।और यह काम ब्राम्हणों का ब्राम्हणवाद करता है इसलिए देश में "सबसे बड़ा आंतकवाद, ब्राम्हणवाद है "।और इसे ब्राम्हणो का संघटन " राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ " आरएसएस चलाता है । आर एस एस अपनी कई संगठन जैसे एबीवीपी, बजरंग दल, भा.ज.प, विश्व हिन्दू परिषद,हिन्दू महासभा, सनातन संस्था  र्इत्यादी के माध्यम से देश में ब्राम्हणवाद का काम करते रहते है ।और ब्राम्हणी व्यवस्था  को बरकरार रखने का काम करते रहते है । "लोकतंत्र दिन"(26 जनवरी )
को  "काला दिन मनाना " यह देश विरोधी कृती है, तो भी लोकतंत्र दिन को " काला दिन" मनाने वालो पर अब तक देश द्रोह की कारवाई  नहीं हुई है । भारत देश के आजादी के आंदोलन में आर एस एस के लोग नहीं थे, इनके  नेताओं ने ब्रिटिश सरकार को लिखकर दिया था कि, हमारा  भारत देश के आजादी के आंदोलन से कोई संबंध नहीं है । यह देश के  विरोध में कृती है । इस देश का नाम "भारत " है । और यह नाम संविधान समिति ने सर्वसम्मति से मंजूर किया गया है । तो भी आर एस एस के  विदेशी आर्यब्राम्हण भारत देश को हिन्दूस्तान कहते हैं। यह देश विरोधी कृती है । आर एस एस के विदेशी आर्यब्राम्हण  भारत देश में अलग-अलग विवाद कर के  मूलभारतीयों में झगड़े लगाने का काम करते हैं । जैसे जातीवाद, प्रांतवाद, भाषावाद, मंदिर वाद,  गायवाद, उच्च-ऐनिच्च वाद, हिंदू - मुस्लिम वाद, हिंदू - इसाई वाद इत्यादी वाद निर्माण करके मूलभारतीय समाज में झगड़े लगाने का काम करते रहते है । और देश में  अशांति  रहे, इसके लिए  का काम करते रहते है । यह काम समाज और राष्ट्र निर्माण में बाधा उत्पन्न करने वाला  काम है । और यह काम विदेशी आर्यब्राम्हण सदियों से करते आ रहे है, और आज भी करते हैं ।   इन जातीवादी, विषमतावादी विदेशी आर्यब्राम्हणो के ब्राम्हणी व्यवस्था के विरोध में, कोई मूलभारतीय मानवी मूल्यों के आधार पर अगर बात करता है, बोलता है, तो उस पर देश विरोधी कारवाई की जाती है । यह  "उल्टा चोर, कोतवाल को डांटे," जैसा है ।
जो मूलभारतीय संविधान की बात करते हैं, अपने अधिकारों की बात करते हैं, विदेशी आर्यब्राम्हण उसे  देश विरोधी कहते हैं । हैदराबाद विश्वविद्यालय  का रोहीत वेमूला, जो कि "पी एच डी.की पढाई कर रहा था । वह भारतीय संविधान ने हर भारतीयोंको दिए, अपने अधिकारों के प्रति जागृत था, यही बात विदेशी आर्यब्राम्हणो के आर एस एस सरकार को नहीं जची। रोहित वेमूला समतावादी राष्ट्रपिता ज्योतीबा फुले,  राष्ट्रनायक शाहु महाराज , राष्ट्रनिर्माते डाॅ. बाबासाहेआंबेडकर, पेरियार रामसामी इन भारतीय महापुरुषोंके विचारों का प्रतिनिधित्व करता था । मानवी मूल्यों के विचारों का  आदान-प्रदान करता था । और उसी  विश्वविद्यालय में विषमतावादी, जातीयवादी,विदेशी आर्यब्राम्हणो का  आर एस एस का कार्यरत संघटन " एबीवीपी " को  रोहीत के  विचारों से  बाधा उत्पन्न हुई, उसके साथ जाती के आधार पर भेदभाव किया गया । उसे प्रताड़ित किया गया । उसका दमन,शोषण किया गया ।  विश्वविद्यालय से, होस्टल से,लायब्रेरी से संस्था के पूरे परिसर से रोहित और उसके साथी  को बाहर निकाला गया । वह आम रस्ते पर रहे ।और आखिरकार जातीवादी, विषमतावादी ब्राम्हणी व्यवस्था ने  रोहित  को बली चढा दिया गया । यह ब्राम्हणी व्यवस्था का "Institutional Murder" है ।  यह देश विरोधी कृत्ये है । और आर एस एस सरकार ने अपने देश विरोधी ओ पर अब तक कोई कारवाई नहीं की है ।
देश में ऐसे मूलभारतीयोंको, समतावादी, मानवी मूल्यों का आदान-प्रदान करने से, विषमतावादी  विदेशी आर्यब्राम्हणो को  बाधा उत्पन्न हुई, उसके कारण कई मूलभारतीयोंको अपने प्राण गंवाए पडे ।
"सामाजिक समता राष्ट्र निर्माण है । और       विदेशी ब्राम्हण इसके विरोध में है।"
सामाजिक समता और राष्ट्र निर्माण के लिए जिन मूलभारतीयों ने काम किए,उनके साथ विदेशी आर्यब्राम्हणो ने दूर्व्यवहार किये हैं, उनकी हत्याएँ की गयी है । हत्या के प्रयास किए गए हैं ।  उनके साथ छल कपट किए गए हैं ।  और यह सब, जब से आक्रमणकारी विदेशी आर्यब्राम्हण भारत देश में आए हैं, तब से लेकर आजतक इनके करतूतें जारी है ।

लोकप्रिय पोस्ट